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Jaya Bachchan Angry With Bachchan Surname : महिलाओं की पहचान पर जया बच्चन की शुरू हुई बहस से उठे ज़रूरी सवाल

Jaya Bachchan Angry With Bachchan Surname : महिलाओं की पहचान पर जया बच्चन की शुरू हुई बहस से उठे ज़रूरी सवाल

Jaya Bachchan

राज्य सभा के उप सभापति हरिवंश नारायण सिंह ने 29 जुलाई को सदन में बोलने के लिए Jaya Bachchan का नाम पुकारा। जया बच्चन खड़ी होकर सख़्त लहज़े में बोलीं, “सर, सिर्फ जया बच्चन (Jaya Bachchan) बोलते तो काफ़ी हो जाता। यह जो कुछ नया तरीक़ा निकला है कि महिलाएँ अपने पति के नाम से जानी जाएँगी, उनका कोई अस्तित्व नहीं है ? क्या उनकी कोई उपलब्धि नहीं है अपने में ?”

उप सभापति ने जवाब दिया, “मैंने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि यहाँ (संसद से जुड़े दस्तावेज़ों में) यही पूरा नाम लिखा है।” इस वाकये के बाद बहस शुरू हो गई कि Jaya  Bachchan ने दो अगस्त को सभापति जगदीप धनखड़ से संसद में व्यंग्य भरे अंदाज़ में कहा, “मैं जया अमिताभ बच्चन।”

पति के नाम और सरनेम को इस्तेमाल किए जाने पर जया बच्चन (Jaya Bachchan ) ने जो सवाल उठाए, वो सालों से कायम हैं। जया बच्चन मशहूर कलाकार हैं और समाजवादी पार्टी की राज्य सभा सांसद हैं। शादी से पहले वे जया भादुड़ी के नाम से जानी जाती थीं। अमिताभ बच्चन से शादी के बाद वे Jaya Bachchan के नाम से मशहूर हो गईं। राज्य सभा के लिए दिए गए हलफ़नामे में उनका पूरा नाम जया अमिताभ बच्चन ही दर्ज है।

हालाँकि, उन्होंने जिस तरह की प्रतिक्रिया दी, उसके बाद नाम और महिलाओं की पहचान पर चर्चा शुरू हो गई है। यह छोटा सा प्रकरण बड़ी बात की तरफ़ इशारा कर गया, यानी महिलाओं की पहचान क्या है? महिलाओं की कोई स्वतंत्र पहचान है भी या नहीं ?  क्या शादी का मतलब ख़ुद की पहचान को किसी और की पहचान में मिला देना है ?

हमारे समाज में महिलाओं की पहचान का संघर्ष :

हमारा समाज अक्सर स्त्रियों को अपने काबू में ही नहीं करता बल्कि उनकी स्वतंत्र पहचान को भी ख़त्म कर देता है। सवाल बहुत बुनियादी हैं। परिवार का मुखिया कौन होगा- स्त्री या पुरुष ? वंशावली का आधार कौन होगा- स्त्री या पुरुष ? स्त्री और उससे पैदा होने वाली संतान को सामाजिक पहचान कौन देगा- स्त्री या पुरुष ? उत्तराधिकार किसे मिलेगा- स्त्री या पुरुष ?

क़ानूनी क़ागज़ात में स्त्री किस नाम से पहचानी जाएगी ? इन सबके जवाब की बुनियाद में मर्द है। इसीलिए मर्दों की सत्ता है। स्त्री की पहचान की छटपटाहट में इन सबसे उपजा समानता का संघर्ष है।

स्त्रियों के नाम और पहचान का मुद्दा कई रूपों में हमारे समाज में रहा है। इंसान के लिए पहचान का संघर्ष अहम संघर्ष रहा है। स्त्रियों के लिए यह संघर्ष पुरुषों से कई गुना ज़्यादा बढ़ जाता है। उनकी पहचान को हर जगह मिटाने या छिपाने की कोशिश ही रहती है।

पहचान का संघर्ष :

स्त्रियों की ज़िंदगी में पर्दे का सिर्फ एक रूप नहीं रहा है। उनकी पूरी शख़्सियत को ही पर्दे में क़ैद करके रखा गया। ख़ासकर शादी के बाद तो वे छोटी-बड़ी बहू के रूप में पहचानी गईं या अपने इलाके-गाँव-ज़िले के नाम से जानी गईं। यही नहीं, कई इलाकों में तो उन्हें पुराने नाम की जगह अलग से नया नाम ही दिया जाता रहा है। शादी के बाद वही नया नाम उनकी पहचान होती थी। यानी नाम के साथ ज़िंदगी का जो हिस्सा जुड़ा है, उसे भी ख़त्म कर दिया जाता था।

एक ज़माना था जब चेहरा और आवाज़ के पर्दे के साथ- साथ नाम का भी पर्दा था। जब वे पढ़ने-लिखने लगीं तो सार्वजनिक तौर पर नाम लिखने का मसला आया। नाम तो अपने आप में एक शख़्स की पूरी पहचान देता है। उसे एक शख़्स के रूप में खड़ा करता है।

इसलिए उनके नाम तो थे लेकिन वे सार्वजनिक नहीं किए जाते। शुरुआती दौर में लिखने वाली अनेक लड़कियाँ और स्त्रियाँ अपने पिता, पति या बेटों के नाम से जानी गईं। कई तो अज्ञात ही रह गईं। कइयों के नाम उनके ना रहने के बाद पता चले।

अनेक ऐसी विदूषी महिलाओं के योगदान इसलिए अनजान रह गए, क्योंकि उनके नाम पता नहीं थे। जब नाम सार्वजनिक होने लगे तो उनके साथ पुरुषों के उपनाम जुड़ने लगे। शादी से पहले पिता का उपनाम और शादी के बाद पति का नाम-उपनाम।

स्त्रियों के नाम बदलने की परम्परा :

अभी हाल में ही एक बहुचर्चित शादी हुई है। उस शादी में भी यही हुआ कि लड़की के उपनाम की जगह पति का पूरा नाम जोड़ा गया। इसे परम्परा और संस्कृति का नाम दिया गया। ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ़ भारत में है या भारत में ही स्त्रियों के नाम बदल जाते हैं। यह दुनिया भर में देखा जा सकता है। एक से बढ़कर एक अपने पैरों पर खड़ी महिलाओं के नाम के साथ भी यह देखा जा सकता है।

सवाल तो यह भी उठ सकता है कि लड़कियाँ या महिलाएँ ऐसा क्यों करती हैं ? वे क्यों जोड़ लेती हैं पति का नाम ? शादी से जुड़े रीति-रिवाजों का दिमागी तौर पर ज़बरदस्त कब्ज़ा है। इन्हें न मानने या न अपनाने से किसी तरह का बुरा होगा, यह ख़्याल बहुत मज़बूत है। शुभ-अशुभ जुड़ा है। इससे इतर सोचना किसी भी शादीशुदा लड़की के लिए बेहद कठिन है।

यह सब संस्कृति, परम्परा, धर्म- सबके नाम पर होता है। साथ ही, पारिवारिक और सामाजिक दबाव होता है। लड़कियों का संस्कृतिकरण भी इस तरह होता है कि वे शादी के बाद शृंगार की कई निशानियाँ सुहागन दिखने के लिए सहज अपना लेती हैं। इनमें एक उनका नाम भी है। शादी होते ही, सबसे पहली चीज़ जो बदलती है, वह नाम ही है। कई बिना किसी दबाव या आग्रह के अपने नाम के साथ पति का उपनाम या पूरा नाम जोड़ लेती हैं।

कइयों ने एक और तरीक़ा अपनाया है। वे अपना उपनाम हटाती नहीं हैं। उसके साथ-साथ पति का नाम- उपनाम भी जोड़ लेती हैं। यानी एक नाम के दो-दो उपनाम होते हैं। शायद कइयों के लिए यह एक अच्छी पत्नी होने के सुबूत के तौर पर भी यह करना ज़रूरी होता है।

दिलचस्प है कि शादीशुदा पुरुष की पहचान के लिए न तो कोई शृंगार है, न ही अपना नाम, उपनाम बदलने या उसमें कुछ जोड़ने का रिवाज है। पता नहीं पुरुषों ने कभी इस पर विचार किया या नहीं ? या अगर उन्हें पत्नी का नाम-उपनाम नाम जोड़ने के लिए कहा जाए तो उनकी राय क्या होगी ?

बदलाव की लहर :

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ऐसा नहीं है कि बदलाव नहीं हो रहे हैं। लेकिन बदलने के लिए दिमाग़ी रूप से बदलना बेहद ज़रूरी है। यह इतना आसान नहीं है। सदियों की रीति-रिवाज को बदलने में वक़्त लगेगा। इसके लिए रीति-रिवाजों से टकराने की हिम्मत और ख़ुद पर यक़ीन ज़रूरी है।

इसीलिए कई शादीशुदा स्त्रियाँ न तो पति का नाम लगाती हैं और न ही उपनाम। फ़िल्मों की दुनिया में ही ऐसे कई नाम हैं। कई पुरानी और मौजूदा दौर की कलाकार हैं, जिन्होंने शादी के बाद अपना नाम या उपनाम नहीं बदला। कई स्त्रियाँ तो शरीर पर शादी की निशानियाँ भी नहीं लगातीं। वे अपने नाम के साथ ‘श्रीमती’ जैसे प्रयोग से भी परहेज़ करती हैं।

लड़कियों और महिलाओं के लिए ख़ुद की पहचान बनाना, इसीलिए एक बड़ा संघर्ष है। यह अपने वजूद को हासिल करने और उसे बरक़रार रखने की जद्दोजेहद है। यह जद्दोजेहद उसे ताउम्र करनी पड़ती है। हालाँकि, इक्का-दुक्का पुरुषों ने भी एक पहल की है। वे अपने नाम के साथ अपनी माँ का नाम जोड़ रहे हैं।

अच्छी पहल के लिए कभी देर नहीं होती। जया बच्चन (Jaya Bachchan) ने जो सवाल उठाए हैं, वे बुनियादी और महत्वपूर्ण हैं। महिलाओं की स्वतंत्र पहचान का संघर्ष जारी है और इसे समझना, स्वीकारना और बदलना ज़रूरी है। समाज में बदलाव की दिशा में छोटे-छोटे कदम ही बड़े परिवर्तन लाते हैं।जया बच्चन के सवाल और उनकी प्रतिक्रिया ने इस दिशा में एक नई बहस को जन्म दिया है, जो महिलाओं की स्वतंत्र पहचान और उनके अधिकारों के संघर्ष को और मजबूत करेगी।

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